Monday, May 28, 2012

सहगामिनी


सहगामिनी हो जीवन-पथ की,
सहभागी एक-से स्वप्नों की,
हाँ, उसके सुरमयी स्वप्नों की
संचयिका बनना चाहता हूँ.

वो कहे तो मैं सजदे कर लूँ,
या खुद के घुटनों पे हो लूँ,
मगर जहाँ वो सिर रख सके,
वो कन्धा देना चाहता हूँ.

सिर झुका कर बातें कर लूँ,
नेह उसका पलकों पे धर लूँ,
पर उसे सदा मैं आसमान की
बुलंदियों पर देखना चाहता हूँ.


हाँ, उसके सुरमयी स्वप्नों की
संचयिका बनना चाहता हूँ.


Picture Courtesy: http://www.nairaland.com/497893/kneel-down-feed-husband/3

Saturday, May 26, 2012

सीढियां


जो ऊपर की ओर जाती हैं,
वही सीढियां नीचे भी आती हैं.
और सीढियां चढ़ने-उतरने की
कई विधाएं भी पायी जाती हैं!

कुछ लोग एक-एक कदम बढ़ाते हैं,
कुछ लोग बस फांदते ही जाते हैं.
और कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो
हर सीढ़ी पर दोनों कदम जमाते हैं.

और वैसे ही उतरना भी कला है.
धीरे-धीरे उतरना बेहतर होता है,
क्यूंकि जल्दी-जल्दी उतरने में
लड़खड़ाने का ख़तरा ज्यादा होता है.

बात तो बस रिस्क की है,
कौन कितना उठा पाता है.
जो जितना रिस्क उठाता है
वो उतना ही बढ़ता जाता है.

लेकिन चढ़ने और उतरने के क्रम में
एक विशेष अंतर होता है,
कि कूदकर उतरना तो आसान होता है
मगर उछलकर चढ़ पाना-
ज़रा मुश्किल होता है !



Picture Courtesy: http://wellness-nexus.blogspot.com/2012/03/climb-steers-of-success.html

Thursday, May 24, 2012

परिपक्वता

The serene calmness and quietness of a candle (diya) gets more and established only with time!


 

तब ज़िद्दी बच्चों-सा
मांगता रहा तुमसे
और ये भी पता न था
कि माँगना क्या है!

अब समझ है इतनी
कि चाहिए क्या मुझे,
और जानता हूँ ये भी
कि माँगना क्या है!

फिर भी नहीं मांगता!
क्यूंकि मन में तुमने
विश्वास जो भर दिया है,
कि भला माँगना क्या है!

शायद यही परिपक्वता है!

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I used to ask for everything
like an unyielding child
without even knowing
what is that I actually need!

With time, we grow and realize
what should we actually ask for.
Now I know what is that
I really really need.

But I won't even ask you
to give me what I want!
For, you've bestowed me such a faith
that I can get it, whatever I want.

Perhaps this is what maturity is!
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Picture Courtesy: Santanu Sinha

Tuesday, May 15, 2012

उसका बोझ भारी है...



युवा आज का
कर्मी है, साक्षी भी,
युग-परिवर्तन का.
युवा आज का
सामंजस्य है
पाश्चात्य औ' पुरातन का.

युवा आज का
करता है विरोध,
जो अतीत ने थोपे थे
उन कुरीतियों का,
कुप्रथाओं का.
दहेज का, अस्पृश्यता का.

युवा आज का
कन्धा है वो
जो मिलकर चलता है,
स्त्री का, पुरुष का.
करता है बात
समान अवसरों का,
समान अधिकारों का.

सम्बल दो उसे,
निर्बलता  न गिनाओ,
उसका बोझ भारी है,
फिर भी बढ़ रहा है आगे.
युवा आज का!


Picture Courtesy: http://gogoihimanshu.blogspot.com/2011/03/indian-youth-and-politics-of-india.html

Tuesday, May 1, 2012

निर्वाण दो !





तुम्हारा सानिध्य हो
संकीर्णता से परे.
इन अस्थिर नयनों के
व्याकुल तरंगों को
चिर विश्राम दो,
मन को निर्वाण दो !

सफ़ेद चादर मन,
स्याह काली व्याकुलता,
बरबस लगते दाग,
कैसी ये अस्थिरता!
धुल जाए प्रारब्ध
ऐसा वरदान दो !
मन को निर्वाण दो !

निस्वार्थ अभिलाषाएं,
निजता का परित्याग,
अविरत चिर प्रखर
तप का विधान दो !
मन को निर्वाण दो !
 
Picture Courtesy: Priyadarshi Ranjan


P.S. http://lifewillbedifferentfromnowon.blogspot.in/2012/05/bear-grylls-that-she-is-not.html ) जब लिख रहा था तब बहुत विचलित था मन, और बार-बार यही ख्याल आ रहा था कि बस, बहुत हुआ, अब सब कुछ शून्य हो जाए... ताकि ना सुख रहे, ना दुःख... और इन सब से ऊपर उठकर मैं अपना जीवन निस्वार्थ  सेवा में सार्थक कर सकूं. मानता हूँ, निर्वाण परमगति है, परन्तु ईश्वर से यह मांगने की इच्छा जताकर कम-से-कम अपनी स्वार्थ-परक भावनाओं में लिप्त मन को शांत कर सकता हूँ.