Saturday, October 22, 2016

ओ वराभय!


बहुत दिनों से ब्लॉग जगत से दूर रहा। बहुत 'मिस' भी करता रहा। शोध कार्य चरम पर था, अतः व्यस्तता बढ़ गयी। ईश्वर के कृपा से पीएचडी पूरी हो गयी! अब नियमबद्ध यहाँ आते-जाते रहने का प्रयास रहेगा। 




चिरनिद्रा सी जीवन तम में,
विराज रही जाने किस भ्रम में!
इक आहट जो होश में लाये,
भयाक्रांत, व्याकुल कर जाए।  
जो क्षण सत्य का भान कराये,
वही न जाने क्यूँ छिप जाए!
बढ़ता पग जब थम-थम जाये,
ये मूढ़ फिर किस पथ जाये?

बाहर का कौतूहल सारा,
बस प्रयास निष्फल-निस्सारा।
फिर भी मूढ़ा दौड़ रहा है,
व्यर्थ की कौड़ी जोड़ रहा है!
दो क्षण भीतर झाँक है लेता,
औ' स्व को है सांत्वना देता,
'मैं हूँ!', हाँ, मैं सचमुच में हूँ!
थोड़ा सा हूँ, पर तुझमें 'हूँ'! 


Picture Courtesy: http://pre14.deviantart.net/695f/th/pre/i/2015/234/8/3/abstract_shiva_by_ani460-d96pcpy.jpg

Thursday, March 10, 2016

हे बुद्धिजीवीयों



​मनुस्मृति ही क्यों, तुम 
वेद-पुराण भी जला डालो,
धर्म, शास्त्र, नीतियों को 
तुम हँसी में ही उड़ा डालो! 

वैसे भी इन्हे समझ पाना, 
तुम्हारे बस की बात नहीं,
'सत्य' भी क्या जलेगा कभी?-
तुम चाहे जितना जला डालो !

यह कुकृत्य भी नहीं ऐसा कि
सिर-कलम की बात भी होगी! 
प्रखर होगा प्रहार से धर्म ही
तो बात किस आघात की होगी?

निश्चय ही हे 'बुद्धिजीवीयों',
यह काल है मंथन का अभी,
विष-अमृत सब ही अलग होंगे,
तुम चाहे जितना मिला डालो!